Thursday, August 23, 2007

कैसे सुलाझाऊ इस जीवन की पहेली....

आज फुर्सत से बेठी हु अकेली....
न कोई संग है न सहेली...

सोच रही हु...जिन्दगी भी एक अजीब पहेली...
कभी लगती है खुशियों से भरी..
कभी लगती है गमों की हवेली...

सोच रही हु.....काश मेरी भी हो तमन्ना पुरी...
बरसों से जो है अधूरी....
पर क्या करे किस्मत भी है हठेली....

सोच रही हु..... क्या यही है मंज़िल मेरी....
जोश की शम्मा तो अभी भी है जली....
पर उस पर जमी है वक्त की चादर बर्फीली....

सोच रही हु..... क्या मेरा भी समय आएगा....
क्या मेरा भी जहाँ जगमगायेगा....
पर कैसे सुलाझाऊ इस जीवन की पहेली....

j'z

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